9 घंटे पहले
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एन. रघुरामन, मैनेजमेंट गुरु
पिछले सप्ताहांत की बात है, जूनियर कॉलेज की एक लड़की स्कूल बस की आखिरी सीट पर अकेली बैठी थी, यह बस मध्यप्रदेश के उसी स्कूल सह जूनियर कॉलेज की थी। उसकी सीट के बगल में अक्सर बैठने वाली लड़की उस दिन अनुपस्थित थी।
दसवीं कक्षा के एक लड़के ने खाली सीट देखी और रोज की सीट से उठकर उसके बाजू में बैठ गया। चूंकि उसके मन में कुछ सवाल थे, जो कि उसने उस लड़की से किए और उसने जवाब दे दिए। अगले 20 मिनट में दोनों अपने-अपने गंतव्य स्थान पर उतरकर घर चले गए। यहां तक कि उस लड़की ने ये वाकिया घर पर भी बताया।
सोमवार की सुबह, उस लड़की को कंडक्टर ने बस में आगे की सीट पर बैठने के लिए कहा। जब उसने कारण पूछा, तो कंडक्टर ने कहा कि यह ऊपर से आदेश आया है। जब उसने जोर दियाा कि ऐसा आदेश सिर्फ उसके लिए ही क्यों हैं, तो कंडक्टर ने बेमन से कहा स्कूल के कैमरे में किसी ने तुम्हें एक दिन किसी जूनियर लड़के के साथ बस में पीछे की सीट पर बैठे हुए देखा था और इसीलिए यह आदेश आया है।
अब यह निर्णय न सिर्फ इस किशोर बच्ची को परेशान कर रहा है, वो भी तब जब उसके माता-पिता उस पर भरोसा कर रहे हैं, ऐसे में स्कूल प्रशासन क्यों भरोसा नहीं कर पा रहा, जो कि उसे जानता तक नहीं। कम से कम उन्हें उस बच्ची के चरित्र को लेकर उसके शिक्षकों से बात कर लेनी चाहिए थी।
अब बस में कॉलेज के साथी और स्कूल के बच्चे उसे अलग निगाहों से देख रहे हैं। उसे एक तरह से अपमान महसूस हो रहा है, हो सकता है कि यह सही नहीं है, लेकिन यह ख्याल उसे परेशान कर रहा है। पिछले दो दिनों से उस बस में यात्रा करते समय वह खुद को अपमानित महसूस कर रही है।
मैं उस स्कूल या शहर तक का नाम यहां इसलिए नहीं लिख रहा, क्योंकि मेरा इरादा उन्हें बदनाम करना नहीं है, ना ही किसी खास व्यक्ति को कोई सीख देना है, बस मैं समाज से पूछना चाहता हूं कि हमें क्या हो गया है, जो हम अपने बच्चों पर भरोसा नहीं कर सकते, खासतौर पर तब, जब हम को-एजुकेशन प्रणाली चला रहे हैं, जहां लड़के-लड़कियां एक ही क्लास में बैठते हैं और वही विषय पढ़ते हैं। क्या हमें वह पुरानी कहावत याद नहीं जहां पूर्वजों ने कहा था कि “आंखों से देखा और कानों से सुना कभी-कभी सच नहीं होता?”
अब मेरा अगला प्रश्न यह है कि वह कौन है जिसने उस लड़की को अप्रत्यक्ष रूप से अपमानित करने वाला ऐसा निर्णय लिया? क्या वह खुद उसी उम्र के बच्चों का पिता नहीं होगा? अगर नहीं है, तो क्या उसने अपने इस तरह के फैसले को प्रिंसिपल या किसी वरिष्ठ और अनुभवी व्यक्ति को आगे बताया, जो इस फैसले के भविष्य के नतीजों का अनुमान लगा सकते थे, जिसका शायद इतना बुरा असर नहीं होता।
या हमें यह मान लेना चाहिए कि कुछ स्कूलों को यह समझ नहीं है कि आज के बच्चे बहुत संवेदनशील हैं और मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों से जूझे रहे हैं, और हमें उन्हें सनकी निर्णयों से बचाने के लिए अतिरिक्त देखभाल करनी चाहिए जो उनके आत्मविश्वास को हिला सकते हैं।
यदि बच्चा खुद को एक अलग कमरे में अलग-थलग कर रहा है, तो यह आत्मविश्वास की कमी का संकेत है। जब विद्यार्थियों के खिलाफ इस तरह की कोई भी अविवेकपूर्ण कार्रवाई की जाती है, तो उन्हें लगता है कि लोगों के बीच उनकी छवि खराब हो रही है। उनके लिए सार्वजनिक छवि अधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि सोशल मीडिया उनके जीवन में प्रमुख हो गया है।
अब हमारे लिए समय आ गया है कि हम अपने कर्मचारियों को विचारशील लीडर बनने के लिए कहें, न कि सिर्फ लीडर।फंडा यह है कि इसमें एक सही संतुलन होना चाहिए कि हम अपने बच्चों को क्या सिखाना चाहते हैं और अपने एक्शन, शब्द, निर्णय और दूसरे लोगों के बीच किस तरह से हम बात करते हैं, इनके जरिए हम क्या सिखा रहे हैं। नहीं तो हमारे लिए परिणाम डरावने हो सकते हैं, खासकर बच्चों की सुख-शांति के लिए।
फंडा यह है कि इसमें एक सही संतुलन होना चाहिए कि हम अपने बच्चों को क्या सिखाना चाहते हैं और अपने एक्शन, शब्द, निर्णय और दूसरे लोगों के बीच किस तरह से हम बात करते हैं, इनके जरिए हम क्या सिखा रहे हैं। नहीं तो हमारे लिए परिणाम डरावने हो सकते हैं, खासकर बच्चों की सुख-शांति के लिए।
एन. रघुरामन का कॉलम:हमें क्या करना चाहिए, और क्या कर रहे हैं?