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- N. Raghuraman’s Column Working Mothers Should Get ‘domestic Equality’

एन. रघुरामन, मैनेजमेंट गुरु
वे सुबह 5 बजे उठ गईं और तुरंत ही किसी ऐसी आधुनिक कार की तरह काम करना शुरू कर दिया, जो पांच सेकंड में 0 से 80 किलोमीटर की गति तक पहुंच जाती है। दांतों में ब्रश दबाए ही वे दरवाजे के बाहर बैग से दूध के पाउच उठाती हैं और ब्रश करने के लिए बाथरूम में चली जाती हैं।
वे बाल बांधती हैं और रसोई के प्रवेश द्वार पर नोटपैड में वह सब लिखती हैं, जो पिछली रात उन्हें ध्यान आया था :
1. राहुल (चौथी कक्षा में पढ़ने वाला उनका बेटा) के लिए स्पोर्ट्स पैंट पर बटन लगाना हैं (शनिवार की खेल गतिविधियों के लिए उसे उस पतलून की आवश्यकता होती है)
2. अरविंद (उनके पति) को किराने का सामान लाने की याद दिलाना है।
3. ससुर के घर दवाइयां भेजना हैं (अरविंद के माध्यम से उन्होंने केंद्र सरकार की योजना के तहत उनके लिए तीन महीने की दवाइयां प्राप्त की थीं)।
4. शुक्रवार को अरविंद वर्क फ्रॉम होम करते हैं और उन्हें हाउस-हेल्प से सब्जियों की ट्रे साफ करवानी हैं। वे नोटपैड के सामने खड़े होकर सोचती हैं कि कहीं वे कुछ भूल तो नहीं रहीं। फिर वे दूध उबालने के लिए रसोई में चली जाती हैं। फिर वे अरविंद को जगाने के लिए बेडरूम की ओर जाती हैं।
वे एक कामकाजी मां हैं और वर्तमान में 5 से 8 बजे तक की एक पार्ट-टाइम नौकरी कर रही हैं। उसके बाद वे अपनी 9 से 3 बजे तक की फुल-टाइम टीचिंग जॉब में चली जाएंगी। फिर वे अपनी उस दूसरी नौकरी के लिए भी तैयार रहेंगी, जिसकी शिफ्ट शाम 4 बजे शुरू होकर रात 10 बजे तब खत्म होती है, जब रसोई का काम पूरा होता है और राहुल सोने चला जाता है।

अरविंद सुबह 5.30 बजे उठ जाते हैं और राहुल को जगाकर उसे तैयार करने में उनकी मदद करते हैं। उसकी स्कूल यूनिफॉर्म और बैग तैयार रखा जाता है और लगभग 7.30 बजे तीनों नाश्ते के लिए बैठते हैं। कॉलेज बस में, वे अपना लैपटॉप खोलती हैं और तीसरे अध्याय या ‘संगठनात्मक व्यवहार’ विषय को स्क्रीन पर रखती हैं, जो उनका पहला लेक्चर है।
फिर वे अपनी आंखें बंद करके स्लाइड में जोड़ने के लिए जरूरी उदाहरणों के बारे में सोचती हैं और कुछ मिनटों की झपकी लेती हैं। जब किसी बड़े-से गड्ढे की वजह से बस को दचका लगता है तो वे जाग उठती हैं और चेहरे के मेकअप को दुरुस्त करने के लिए मोबाइल कैमरे में खुद को देखती हैं। अचानक उन्हें याद आता है कि राहुल के सफेद जूते की पॉलिश सूख गई है और उन्हें उसके लिए एक नया डिब्बा खरीदना है। वे पर्स से अपनी छोटी-सी डायरी निकालती हैं और इसे नोट कर लेती हैं।
‘दुकान से चीनी या जूते की पॉलिश तो कोई भी खरीद सकता है, लेकिन यह कौन देखेगा कि रसोई में चीनी खत्म हो रही है और पॉलिश के डिब्बे सूख गए हैं?’ ये प्रश्न है ‘फेयर प्ले’ पुस्तक की लेखिका और ‘घरेलू समानता’ प्राप्त करने के लिए एक गेम-आधारित प्रणाली की विकासकर्ता ईव रॉडस्की का।
पिछले महीने प्रकाशित एक अध्ययन में पाया गया है कि कामकाजी- विशेषकर छोटे बच्चों वाली- महिलाओं के लिए यह सारा मानसिक कार्य बहुत मुश्किल साबित होता है। यह पाया गया कि संज्ञानात्मक कार्यों के लिए श्रम का असमान विभाजन पुरुषों की तुलना में महिलाओं को अधिक क्षति पहुंचाता है।
महिलाएं पारिवारिक शेड्यूल, भोजन की योजना, कार्य की डेलीगेटिंग और घरेलू कार्यों को प्रबंधित करने में औसतन हर हफ्ते 30 घंटे का समय देती हैं। और ये गतिविधियां मानसिक भार की श्रेणी में आती हैं। जीवन को सुचारु रूप से चलाए रखने के लिए यह संज्ञानात्मक बोझ उठाना पड़ता है और इसका प्रबंधन दिन-ब-दिन मुश्किल होता जा रहा है।
ऐसे में क्या करें? तकनीकी का उपयोग त्वरित समाधान हो सकता है। लेकिन हम पुरुषों को भी कुछ मानसिक भार साझा करना चाहिए और अगर हम ऐसा नहीं कर सकते तो उन्हें खुश बनाए रखने के लिए उनसे उदारता व प्रेमपूर्ण शब्द ही कहते रहना चाहिए।
फंडा यह है कि इस आधुनिक तनावपूर्ण दुनिया में कामकाजी जोड़ों के बीच शारीरिक श्रम साझा करना ही पर्याप्त नहीं, मानसिक बोझ साझा करना भी उतना ही महत्वपूर्ण है और इसी तरह से एक परिवार ‘घरेलू-समानता’ (डोमेस्टिक इक्वेलिटी) हासिल कर सकता है।
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एन. रघुरामन का कॉलम:कामकाजी मांओं को ‘घरेलू-समानता’ मिलनी चाहिए