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3 दिन पहले
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अर्घ्य सेनगुप्ता विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी के शोध निदेशक
जी. अब्दुल कादर इब्राहिम बनाम मदुरै पुलिस कमिश्नर केस, एक असंतुष्ट सरकारी कर्मचारी का अपने विभाग के साथ सामान्य सेवा विवाद बनकर रह जाता। पुलिस आरक्षक इब्राहिम ने हज पर जाने के लिए छुट्टी का आवेदन किया था। जब वो हज से लौटे और आगे मेडिकल लीव चाही, तब विभाग ने मना कर दिया।
सेवा नियमों का उल्लंघन (बिना अनुमति छुट्टी पर जाने और इस तरह दाढ़ी रखने, जिसके नियम स्पष्ट नहीं है) करने पर दस महीने बाद उनके खिलाफ विभागीय जांच के आदेश हुए। 14 महीने बाद आरोप बरकरार रहे। तीन महीने बाद उनकी तीन साल की वेतनवृद्धि रोक दी गई।
अपील के बाद इसे दो साल किया, पर मुद्दा वही रहा कि उन्होंने सेवा शर्तों का उल्लंघन किया है। राहत के लिए इब्राहिम ने मद्रास हाईकोर्ट का रुख किया। कोर्ट ने इब्राहिम के पक्ष में फैसला सुनाया। इसमें माना गया कि पुलिस अधिकारियों के दाढ़ी नहीं रखने के नियम से मुस्लिमों को स्पष्ट रूप से छूट है। वे ताउम्र दाढ़ी रख सकते हैं, बस ये साफ-सुथरी, ट्रिम होनी चाहिए।
कोर्ट से इसी तरह के फैसले की उम्मीद थी। लेकिन यह साधारण-सा मामला इसलिए राष्ट्रीय सुर्खियां बना क्योंकि यह फैसला मद्रास हाई कोर्ट की जज एल. विक्टोरिया गौरी ने सुनाया, जिनकी नियुक्ति का बार और सिविल सोसायटी के कई सदस्यों ने ‘भारत के अल्पसंख्यकों के खिलाफ स्पष्ट पूर्वाग्रह’ रखने पर विरोध किया था।
जब वह मद्रास में शपथ ले रही थीं, तभी सुप्रीम कोर्ट उनकी नियुक्ति को चुनौती देती दो याचिकाओं की सुनवाई कर रहा था। उन पर सार्वजनिक तौर पर अल्पसंख्यकों के खिलाफ हेट स्पीच देने के भी आरोप हैं। लेकिन उन्हीं जज ने इस केस में फैसला सुनाते हुए कहा, “भारत विविध धर्मों और रीति-रिवाजों का देश है, यहां की सुंदरता और विशिष्टता नागरिकों की मान्यताओं और संस्कृति की विविधता में निहित है… विभाग में अनुशासन बनाए रखने के नाम पर अल्पसंख्यक समुदायों, विशेष रूप से मुस्लिम कर्मचारियों को दाढ़ी रखने के लिए दंडित करने की अनुमति नहीं मिलती है, जो वे पैगंबर मोहम्मद की आज्ञाओं का पालन करते हुए जीवनभर रखते हैं।’
हालांकि इस फैसले से आगे की कोई गारंटी नहीं मिलती। लेकिन फिर भी यह फैसला बताता है कि जजों के मामले में (उनके भाषण या पुराने राजनीतिक संबंधों के आधार पर) किसी निष्कर्ष पर पहुंचने से बचना चाहिए कि वे किस तरह के जज साबित होंगे।
जस्टिस कृष्ण अय्यर और जस्टिस चेलमेश्वर राजनीतिक पार्टियों के सदस्य थे, फिर भी वो भारत के सर्वोच्च न्यायालय के दो सबसे विद्वान न्यायाधीश रहे हैं, जिनके राजनीतिक पूर्वाग्रह से ग्रसित होने का सवाल ही नहीं उठता।
बहरहाल, जजों की नियुक्ति में समझदारी भरी प्रक्रिया की कमी साफ तौर पर बनी हुई है। यहां जिस मामले का जिक्र है, उसकी 2018 में शिकायत हुई। 2019 में इस पर जांच का आदेश हुआ। 2021 में सारे आरोप साबित हुए। लेकिन कोर्ट का फैसला 2024 में आया।
एक छोटी-सी विभागीय जांच को पूरा होने में तीन साल लग गए; वहीं इस पर एक साधारण निर्णय देने के लिए और तीन साल लग गए। विभागीय जांच को परिणति तक पहुंचाने की प्रक्रिया इतनी लंबी और जटिल नहीं हो सकती।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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अर्घ्य सेनगुप्ता का कॉलम:न्यायाधीशों के मामले में पूर्वाग्रह से बचना चाहिए