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अभय कुमार दुबे का कॉलम: हमारे पास खेल प्रतिभाएं कम नहीं, सिस्टम में गड़बड़ी है Politics & News

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18 घंटे पहले

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अभय कुमार दुबे, अम्बेडकर विवि, दिल्ली में प्रोफेसर - Dainik Bhaskar

अभय कुमार दुबे, अम्बेडकर विवि, दिल्ली में प्रोफेसर

टोक्यो ओलिम्पिक में हमारे खिलाड़ियों ने सात (एक स्वर्ण समेत) पदक जीते थे। पेरिस में एक पदक कम हुआ, और स्वर्ण घटकर रजत रह गया। देखा जाए तो यह कोई उल्लेखनीय गिरावट नहीं है। लेकिन इससे यह तो पता चलता ही है कि खेलों की दुनिया में हम आगे नहीं बढ़ रहे हैं और एक दीर्घकालीन जड़ता के शिकार हैं।

इसका कारण हमारे खिलाड़ियों में प्रतिभा और लगन की कमी भी नहीं है। प्रतिभा का तो विस्तार हो रहा है। उसमें विविधता आ रही है। नीरज चोपड़ा का एथलेटिक्स के विश्व-मंच पर उदय इसका सबसे बड़ा प्रमाण है।

हरियाणा का खेलों के असाधारण केंद्र के रूप में उभरना यह भी बताता है कि अगर देश में ऐसे दो-तीन केंद्र और बन जाएं तो दुनिया में हमारा सितारा बुलंद होने के लिए आवश्यक आधार तैयार हो जाएगा।

1975 में अजितपाल सिंह के नेतृत्व में भारत ने कुआलालम्पुर में पाकिस्तान को हराकर हॉकी का विश्व कप जीता था। इसके आठ साल बाद लॉर्ड्स के मैदान में कपिल देव के नेतृत्व में भारत ने क्रिकेट का विश्व कप जीता। उसी समय हमारी प्राथमिकताएं स्पष्ट हो गई थीं।

क्रिकेट का कप सुविधाओं, शाबासियों, ख्याति, धन-लाभ, भविष्य के अवसरों और सितारा बनने की संभावनाओं से लबालब निकला। हॉकी के कप और उसके विजेताओं का क्या हुआ? विश्व हॉकी संघ पर काबिज यूरोपीय ताकतों ने नियम बदल कर घास पर खेली जाने वाली पारम्परिक हॉकी का खात्मा कर दिया।

एस्ट्रो टर्फ और सुपर टर्फ का युग आया। हम घास पर ही प्रैक्टिस करते रहे। मॉन्ट्रियल ओलिम्पिक में हमारी विश्व विजेता टीम हारी। इसके बाद हम हार के लिए अभिशप्त हो गए। आज भी हॉलैंड जैसे छोटे-से देश के पास हमसे कई गुना ज्यादा हॉकी के कृत्रिम मैदान हैं।

सरकारी प्रयासों और निजी स्तर पर पूर्व खिलाड़ियों द्वारा की गई संस्थागत कोशिशों से इस दुर्गति में पिछले दिनों कुछ सुधार हुआ है। लेकिन खेलों का संस्थागत ढांचा पहले की ही तरह बुरी हालत में है। इनकी एसोसिएशनें पुराने जमाने की जमींदारियों से अलग नहीं हैं।

नेताओं और उनके परिजनों का इन एसोसिएशन पर कब्जा है। इस बार भारतीय महिला हॉकी टीम ओलिम्पिक में क्वालिफाई ही नहीं कर पाई। कारण था एसोसिएशन में सत्ता-परिवर्तन और कोच के साथ हुआ झगड़ा।

धनराज पिल्लै की कप्तानी में जो हॉकी टीम विकसित हुई थी, उसे ‘गोल्डन जनरेशन’ का नाम दिया जाता है। लेकिन इसी टीम को फेडरेशन के अध्यक्ष ने टूर्नामेंट में अच्छा प्रदर्शन करने के बावजूद निलम्बित कर दिया था। पिछले और इस ओलिम्पिक के बीच मुक्केबाजी संघ ने कोच को चार बार बदला।

तीरंदाजी फेडरेशन पर पूरे 44 वर्ष तक एक ही व्यक्ति का कब्जा रह चुका है। कुश्ती फेडरेशन का तो जिक्र होते ही जंतर मंतर पर पदक विजेता पहलवानों का धरना-प्रदर्शन याद आ जाता है। इनमें विनेश फोगाट भी शामिल थीं।

अगर भारत में खेलों का संस्थागत आधार दुरुस्त, चाक-चौबंद और सतर्क होता तो क्या होता? अगरहमारी बॉक्सिंग फेडरेशन प्रभावी होती तो निकहत जरीन को सीडेड खिलाड़ी के रूप में उतरने का मौका मिलता। आखिरकार वे अपने वर्ग में डबल वर्ल्ड चैम्पियन हैं। लेकिन अनसीडेड बॉक्सर के रूप में उन्हें दूसरे मैच में ही विश्व की नंबर एक बॉक्सर से लड़कर हारना पड़ा।

अगर वे सीडेड होतीं तो इस खिलाड़ी से फाइनल में भिड़ना पड़ता, जहां रजत पदक सुनिश्चित होता। हॉकी टीम ने कांस्य जीता, लेकिन उसका प्रदर्शन इस नतीजे से कहीं अच्छा था। इसका कारण भी संस्थागत माना जाएगा।

अतीत में निशानेबाजी में स्वर्ण पदक जीतने वाले अभिनव बिंद्रा ने अपनी उपलब्धि का श्रेय शूटिंग महासंघ को देने से इंकार कर दिया था। अगर उनके पिता ने निजी संसाधनों का इस्तेमाल करके उनका प्रशिक्षण न करवाया होता तो अभिनव पदक न जीत पाते। नीरज चोपड़ा चोटिल होने के कारण लम्बे अरसे प्रभावी ट्रेनिंग नहीं कर पा रहे थे। क्या भारतीय एथलेटिक फेडरेशन भारत के सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी की इस स्थिति के लिए कुछ जिम्मेदारी महसूस करती है?

भारत में खेलों का संस्थागत ढांचा पहले की ही तरह बुरी हालत में है। इनकी एसोसिएशनें पुराने जमाने की जमींदारियों से अलग नहीं हैं। विभिन्न दलों के राजनेताओं और उनके परिजनों का इन एसोसिएशनों पर कब्जा है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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